Tuesday, 17 October 2017

चाहो तो गोबर भी काफी है गरीबी मिटाने को

 एक कहावत है, गोबर गणेश। इसका मतलब चाहे जो हो, लेकिन सूझबूझ और कुछ कर गुजरने की चाहत हो तो गोबर भी काफी है, गरीबी मिटाने को। आज अंतर्राष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस है। गोबर से गरीबी को मात देने वाले अभिराम कीर्तनिया की कहानी यही प्रेरणा देती है।


जब तक झेलते रहे, झिलाती रही: कीर्तनिया परिवार की दुर्दशा की कहानी शुरू होती है पाकिस्तान-बांग्लादेश बंटवारे से। उस दौरान पीलीभीत में भी कई स्थानों पर बांग्लादेशी शरणार्थी बसाये गए थे। विश्वेश्वर कीर्तनिया का परिवार भी इन्हीं में शामिल था। विश्वेश्वर न तो पढ़े लिखे थे और न ही खेती वगैरह के लिए उनके पास जमीन थी। मेहनत मजदूरी करके परिवार का गुजारा करने लगे। बच्चों की पढ़ाई भी नहीं करवा सके। करीब 25 साल पहले विश्वेश्वर की मृत्यु हुई तो उनके पुत्र अभिराम कीर्तनिया के सिर पर परिवार की जिम्मेदारी आ गई। वह भी मेहनत मजदूरी के सहारे ही परिवार की गाड़ी खींचने लगे। लेकिन इसके बूते परिवार और दो बेटी-एक बेटे का खर्च चलाना मुश्किल होने लगा। अभिराम बताते हैं कि उनके पास दो विकल्प थे। एक तो जो जैसा चल रहा है, चलता रहे। गरीबी जो झिला रही है, उसे झेलते रहें। या फिर गरीबी को हराने के बारे में कुछ सोचें-कुछ करें। उन्होंने गरीबी को मात देने का फैसला किया। दूसरों के लिए मेहनत-मजदूरी करने के बजाय खुद ही कुछ कर गुजरने की ठान ली।

और गरीबी हार गई : अभिराम के पास पूंजी तो थी नहीं। इसलिए उन्हें किसी ऐसे व्यवसाय की तलाश थी, जिसमें पूंजी के बिना भी बात बन जाए। जैविक खाद के बारे में सुन रखा था। उन्होंने इसके स्थानीय बाजार की पड़ताल की और पाया कि गोबर उनके लिए पूंजी का काम कर सकता है। गोबर गणेश बनने की बजाय अभिराम ने सूझबूझ से काम लिया और गणेश को पूर्णता प्रदान करने वाली लक्ष्मी को तलाश लिया। अब वे न केवल जैविक खाद बेचकर मुनाफा कमा रहे हैं, बल्कि उसी गोबर के सहारे मशरूम की खेती भी कर रहे हैं। इतना ही नहीं ठेके की जमीन पर चला रहे इस कारोबार में उन्होंने करीब 15 परिवारों को स्थाई रोजगार भी दे रखा है

जहां चाह, वहां राह : अपनी इस सफलता पर अभिराम कीर्तनिया कहते हैं कि जहां चाह है, वहां राह है। कुछ अलग करने की ललक और रिस्क लेने का माद्दा ही सफलता के मूल में है। उपनिदेशक कृषि डॉ. डीवी सिंह कहते हैं कि अभिराम कीर्तनिया अब जिले के श्रेष्ठतम मशरूम उत्पादकों में से हैं। जिला कृषि विभाग की ओर से उन्हें सम्मानित भी किया जा चुका है।
ऐसे तैयार करते हैं मशरूम
अभिराम कर्तनिया मशरूम उत्पादन के लिए हर सीजन में 30 ट्राली भूसा खरीदते हैं, जो करीब तीन हजार रुपए ट्राली के हिसाब से मिल जाता है। इसके अलावा तीन ट्राली गोबर की तीन साल पुरानी खाद तैयार करते हैं। इसका मिश्रण तैयार कर पैकेट बनाते हैं। वह पैकेट प्लांट में बनाए गए कई तलों में रख देते हैं। इसी में सर्दी की दस्तक के साथ मशरूम बोते हैं। 15 दिन बाद से मशरूम निकलना शुरू हो जाता है तो उसे पीलीभीत-बरेली की मंडी के अलावा गोंडा, लखीमपुर तक भेजते हैं। कई बार अच्छा मूल्य हासिल करने के लिए दिल्ली व उत्तराखंड की मंडियों में भी मशरूम पहुंचाते हैं। इन पांचों प्लाटों में करीब तीन कुंतल मशरूम हर रोज निकलता है, यह सिलसिला होली के आसपास तक जारी रहता है। मशरूम के लिए जो गोबर की खाद तैयार करते हैं, उसे भी साग-सब्जी की खेती करने वाले छोटे किसान खरीद लेते हैं।

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