मुम्बई की भागदौड़ भरी जिन्दगी में कोई आपके तनाव को कम कर सकता है तो वो है मुम्बई के डिब्बावाले | मुम्बई की खचाखच भरी ट्रेनों में सुबह के वक्त जल्दी में टिफिन ले जाना बहुत मुश्किल है क्योंकि उस ट्रेन में आप खुद चढ़ जाए वो ही बड़ी बात है साथ में कुछ सामान ले जाए तो उसके ऑफिस तक सही सलामत फ्चुहने की गारंटी नही है | ऐसे ही ऑफिस कर्मियों की मुश्किलों को दूर करने के लिए मुम्बई के डिब्बावाले आपके पिछले 150 वर्षो से मुम्बई के 2 लाख लोगो तक घर का बना खाना उनके ऑफिस तक पहुचाते है | आइये अब आपको इन डिब्बावालो से जुड़े रोचक तथ्यों से रूबरू करवाते है |
सन 1890 में पहली बार मुम्बई में डिब्बावालो की शुरुवात हुयी जब उस दौर के कुछ अंग्रेज और फारसी समुदाय के लोगो को इसकी जरूरत पड़ी | मुम्बई में आज इतनी भीड़भाड़ है कि पैर रखने को जगह नही है और मुम्बई में इस भीड़ की शुरुवात तो पिछले 100 वर्षो से हो चुकी थी | 1890 के दशक में जब गृहिणियो को सुबह जल्दी उठकर अपने पति के लिए टिफिन बनाने में काफी तकलीफ होती थी क्योंकि उस दौर में आज की तरह गैस और प्रेशर कुकर जैसे सामान रसोई में नही हुआ करते है और चूल्हे पर ही सारा काम होता था | तब महादेव हावजी नामक एक व्यक्ति ने नूतन टिफिन कम्पनी के नाम से डिब्बावालो की शुरुवात की |
शुरुवात में केवल 100 ग्राहकों तक सिमित था ये काम
जब नूतन टिफिन कम्पनी के महादेव हाव्जी ने डिब्बा घर से ऑफिस पहुचाने की शुरुवात की थी उस वक्त केवल 100 ग्राहकों के जरिये उन्होंने शुरुवात की थी जो आज बढकर 2 लाख तक पहुच चुकी है | वर्तमान में रघुनाथ मेडगे पिछले 35 वर्षो से इस संस्था के अध्यक्ष है | वर्तमान में डिब्बावालो की संख्या लगभग पांच हजार है जो मुम्बई के 2 लाख लोगो को सुबह का खाना ऑफिस में पहुचाते है | इस संस्था के पुरे मुम्बई में छह ऑफिस है
|Airforce ke rochak tathaya
अनपढ़ से लेकर थोड़े पढ़े लिखे लोग भी कर लेते है ये काम
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अनपढ़ से लेकर थोड़े पढ़े लिखे लोग भी कर लेते है ये काम
आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इन डिब्बावालो ने शुरू से ही ऐसी प्रणाली विकसित की है कि इसमें अनपढ़ लोग भी शामिल हो सकते है | इन डिब्बावालो का काम कुछ निशानों के जरिये चलता है जो डिब्बो के उपर लिखा होता है और इसको अनपढ़ भी समझ सकते है | वर्तमान में इस काम में कुछ अनपढ़ लोगो से लेकर थोड़े बहुत साक्षर लोग इसमें शामिल है | इनमे से ज्यादातर लोगो को मराठी भाषा में लिखना पढना आता है | हर डब्बे वाले की आय एक जैसी होती है चाहे उसकी उम्र कितनी भी हो , अनुभव कितना भी हो या फिर कितने भी ग्राहक भी हो |]
डिब्बावालों के काम और जीवन पर बनी है कई डॉक्युमेंट्री
ये डिब्बावाले ना केवल भारत बल्कि देश विदेशो में इतने मशहूर ही चुके है कि इनकी कार्यशैली को कैद करने के लिए कई संस्थाओ और टीवी चैनलो ने इन पर डॉक्युमेंट्री बनाई है | आपने भी कई बार डिस्कवरी या नेशनल जियोग्राफिक चैनल पर इनकी डॉक्युमेंट्री देख चुके होंगे | यहा तक की BBC जैसे विश्व के सबसे बड़े चैनल ने भी इनकी कायर्शैली पर कई डॉक्युमेंट्री फिल्मे बनाई है और इनसे मैनेजमेंट का गुर सीखने का तरीका बताया है | 2013 में बॉलीवुड फिल्म “लंचबॉक्स” भी इन्ही डब्बावालो से प्रेरित थी |
पारम्परिक पहनावा ही बन गया है उनका यूनिफार्म
वैसे किसी भी संस्था या कम्पनी में कार्य करने हेतु आपको एक विशेष यूनिफार्म पहननी पडती है लेकिन ये लोग बरसों से जो कपड़े पहने रहे है उसी को उन्होंने यूनिफार्म बना दिया है | डिब्बावाले आपको सफेद कुर्ते , पायजामा , सिर पर गांधी टोपी , गले में रुद्राक्ष माला और पैरो में कोल्हापुरी चप्पल में दिख जायेंगे जो इनकी सादगी की पहचान भी है | डिब्बावालो का काम करने वाले अधिकतर लोग वारकरी समुदाय के है जो विट्ठल भगवान में आस्था रखते है |
प्रिंस चार्ल्स ने तो डिब्बावालो को अपनी शादी में दिया था आमन्त्रण
प्रिंस चार्ल्स जब भारत आये थे तब उन्होंने डिब्बावालो की कार्य शैली देखी तो वो उनके मुरीद हो गये और उन्हें अपनी शादी में आने के लिए इंग्लैंड आमत्रित किया | इस शादी में मुम्बई के डिब्बावालो सहित देश विदेश के लगभग 1500 मेहमानों को बुलाया गया था जो डिब्बावालो के लिए सबसे गर्व का अवसर था | इस शादी में नूतन टिफिन कम्पनी के अध्यक्ष रघुनाथ सहित उनके कुछ साथी गये थे और प्रिंस चार्ल्स को उपहार भी दिए थे | ना केवल प्रिंस चार्ल्स बल्कि रिचर्ड बेंसन जैसे प्रसिद्ध बिज़नसमेन भी उनसे बहुत प्रभावित हुए थे |
डिब्बा पहुचाने में नही होते है कभी लेट और ना ही करते है गलती
लगभग 300 में ये सेवा देने वाले ये डिब्बावाले पिछले 150 वर्षो में कभी लेट नही हुए | चाहे मूसलाधार बारिश हो या गर्मी का प्रकोप , ये अपने काम में 100 प्रतिशत देते है | अपनें काम को सुगमता से करने के लिए मु
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