मुहर्रम मुस्लिम कैलेंडर का पहला महीना है। इस महीने में इमाम हुसैन की शहादत को याद किया जाता है। यजीद की सेना के विरुद्ध जंग लड़ते हुए इमाम हुसैन के पिता हजरत अली का संपूर्ण परिवार मौत के घाट उतार दिया गया था और मुहर्रम के दसवें दिन इमाम हुसैन भी इस युद्ध में शहीद हो गए थे।
मुहर्रम के दसवें दिन (1 अक्टूबर, रविवार) ही मुस्लिम संप्रदाय द्वारा ताजिए निकाले जाते हैं। लकड़ी, बांस व रंग-बिरंगे कागज से सुसज्जित ये ताजिए हजरत इमाम हुसैन के मकबरे के प्रतीक माने जाते हैं। इसी जुलूस में इमाम हुसैन के सैन्य बल के प्रतीक स्वरूप अनेक शस्त्रों के साथ युद्ध की कलाबाजियां दिखाते हुए लोग चलते हैं।
मुहर्रम के जुलूस में लोग इमाम हुसैन के प्रति अपनी संवेदना दर्शाने के लिए बाजों पर शोक-धुन बजाते हैं और शोक गीत (मर्सिया) गाते हैं। मुस्लिम (शिया) संप्रदाय के लोग शोकाकुल होकर विलाप करते हैं और अपनी छाती पीटते हैं। इस प्रकार इमाम हुसैन की शहादत को याद किया जाता है।
इस बस्ती मे इमाम हुसैन के साथ उनका पूरा परिवार और चाहने वाले थे। बस्ती के पास बहने वाली फुरात नदी के पानी पर भी यजीदी फौज ने पहरा लगा दिया। 7 मुहर्रम को बस्ती में जितना पानी था, सब खत्म हो गया। 9 मुहर्रम को याजीदी कमांडर इब्न साद ने अपनी फौज को हुक्म दिया कि दुश्मनों पर हमला करने के लिए तैयार हो जाए। उसी रात इमाम हुसैन ने अपने साथियों को इकट्ठा किया। तीन दिन का यह भूखा, प्यासा कुनबा रात भर इबादत करता रहा।
इसी रात (9 मुहर्रम की रात) को इस्लाम में शबे आशूर के नाम से जाना जाता है। दस मुहर्रम की सुबह इमाम हुसैन ने अपने साथियों के साथ नमाज़-ए-फ़र्ज अदा किया। इमाम हुसैन की तरफ से सिर्फ 72 ऐसे लोग थे, जो मुक़ाबले में जा सकते थे। यजीद की फौज और इमाम हुसैन के साथियों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें इमाम हुसैन अपने साथियों के साथ नेकी की राह पर चलते हुए शहीद हो गए और इस तरह कर्बला की यह बस्ती 10 मुहर्रम को उजड़ गई।
मुहर्रम के दसवें दिन (1 अक्टूबर, रविवार) ही मुस्लिम संप्रदाय द्वारा ताजिए निकाले जाते हैं। लकड़ी, बांस व रंग-बिरंगे कागज से सुसज्जित ये ताजिए हजरत इमाम हुसैन के मकबरे के प्रतीक माने जाते हैं। इसी जुलूस में इमाम हुसैन के सैन्य बल के प्रतीक स्वरूप अनेक शस्त्रों के साथ युद्ध की कलाबाजियां दिखाते हुए लोग चलते हैं।
मुहर्रम के जुलूस में लोग इमाम हुसैन के प्रति अपनी संवेदना दर्शाने के लिए बाजों पर शोक-धुन बजाते हैं और शोक गीत (मर्सिया) गाते हैं। मुस्लिम (शिया) संप्रदाय के लोग शोकाकुल होकर विलाप करते हैं और अपनी छाती पीटते हैं। इस प्रकार इमाम हुसैन की शहादत को याद किया जाता है।
सिर्फ 8 दिन में ही उजड़ गई थी कर्बला की बस्ती
कर्बला का नाम सुनते ही मन खुद-ब-खुद कुर्बानी के ज़ज्बे से भर जाता है। जब से दुनिया का वजूद कायम हुआ है, तब से लेकर अब तक न जानें कितनी बस्तियां बनीं और उजड़ गईं, लेकिन कर्बला की बस्ती के बारे में ऐसा कहते हैं कि यह बस्ती सिर्फ 8 दिनों में ही तबाह कर दी गई। 2 मुहर्रम 61 हिजरी में कर्बला में इमाम हुसैन के काफिले को जब यजीदी फौज ने घेर लिया तो हुसैन साहब ने अपने साथियों से यहीं खेमे लगाने को कहा और इस तरह कर्बला की यह बस्ती बसी।
इस बस्ती मे इमाम हुसैन के साथ उनका पूरा परिवार और चाहने वाले थे। बस्ती के पास बहने वाली फुरात नदी के पानी पर भी यजीदी फौज ने पहरा लगा दिया। 7 मुहर्रम को बस्ती में जितना पानी था, सब खत्म हो गया। 9 मुहर्रम को याजीदी कमांडर इब्न साद ने अपनी फौज को हुक्म दिया कि दुश्मनों पर हमला करने के लिए तैयार हो जाए। उसी रात इमाम हुसैन ने अपने साथियों को इकट्ठा किया। तीन दिन का यह भूखा, प्यासा कुनबा रात भर इबादत करता रहा।
इसी रात (9 मुहर्रम की रात) को इस्लाम में शबे आशूर के नाम से जाना जाता है। दस मुहर्रम की सुबह इमाम हुसैन ने अपने साथियों के साथ नमाज़-ए-फ़र्ज अदा किया। इमाम हुसैन की तरफ से सिर्फ 72 ऐसे लोग थे, जो मुक़ाबले में जा सकते थे। यजीद की फौज और इमाम हुसैन के साथियों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें इमाम हुसैन अपने साथियों के साथ नेकी की राह पर चलते हुए शहीद हो गए और इस तरह कर्बला की यह बस्ती 10 मुहर्रम को उजड़ गई।
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